मुंबई। भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे चर्चित और कई मामलों में मील का पत्थर कहलाने वाली रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’ (1975) ने शुक्रवार को अपनी रिलीज़ के 50 साल पूरे कर लिये। यह फिल्म एक ऐसा ‘महाकाव्य’ रही, जिसने मुख्यधारा में बनने वाली हिंदी फिल्मों के ‘व्याकरण’ को एक नया ही रूप दे दिया। जी.पी. सिप्पी के सहयोग से निर्मित और सलीम-जावेद की कलम से लिखित इस फिल्म ने ‘बुच कैसिडी एंड द सनडान्स किड’ और ‘वन्स अपॉन अ टाइम इन द वेस्ट’ जैसी हॉलीवुड वेस्टर्न फिल्मों के साथ-साथ अकीरा कुरोसावा की ‘सेवन समुराई’ से प्रेरणा ली। इस मिश्रण ने उस फिल्म को जन्म दिया, जिसे बाद में आलोचकों ने ‘करी वेस्टर्न’ का नाम दिया। यह एक ‘डकैत’ ड्रामा थी, जिसमें मसाला मनोरंजन और अपने समय में अभूतपूर्व सिनेमाई आकर्षण था। अमेरिकी फिल्मों की बराबरी करने के लिए ‘शोले’ भारत की पहली 70 मिमी ‘स्टीरियोफोनिक’ ध्वनि वाली फिल्म बनने वाली थी, लेकिन इसमें लगने वाले खर्च के कारण इसे 35 मिमी फिल्म पर शूट किया गया और फिर 70 मिमी वाइडस्क्रीन प्रारूप में परिवर्तित किया गया। दो साल से भी ज़्यादा समय तक कलाकारों और अन्य कर्मियों ने कर्नाटक के रामनगर की भीषण गर्मी और कठोर चट्टानी परिस्थितियों को झेलते हुए एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया, जहां धैर्य और भव्यता का संगम था। इसकी कथावस्तु के केन्द्र में वीरू (धर्मेन्द्र) और जय (अमिताभ बच्चन) की कहानी है । दो बेअदब छुटभैये अपराधी, जिन्हें अदम्य ठाकुर बलदेव सिंह या ठाकुर साहब (संजीव कुमार) ने अत्याचारी डाकू गब्बर सिंह को पछाड़ने के लिए भर्ती किया था। डाकू का किरदार नवोदित अमजद खान ने अपने करिश्मे से जीवंत कर दिया है।